कभी सोचा न था कि दुनिया इतनी डिजिटल हो जाएगी!
इधर-उधर घूमने भी हम सिर्फ रील बनाने के लिए ही जाते हैं। रील बनाते-बनाते कब सुबह, कब शाम, कब रात हो जाती है, यकीन कीजिए, पता ही नहीं चलता। मामला चूंकि घर का है। साथ रहना भी है। खुद की इज्जत बचाए रखनी भी है। इसीलिए बीवी का रील-अत्याचार चुपचाप सहन करता रहता हूं। डिजिटल होने की कुछ कीमत हमें चुकानी ही होगी। रील का कीड़ा अर्थी तक पहुंच गया है। उस रोज देखा कि एक बंदा अर्थी को कंधे पर रख रील बनाते हुए जा रहा था। मरने वाले की आत्मा निश्चित ही तृप्त हुई होगी! मोक्ष मिला होगा उसे! कभी सोचा न था कि दुनिया इतनी डिजिटल हो जाएगी!
अब हम रील प्रधान मुल्क हैं। जिस ओर निगाह जाती है, कोई न कोई रील बनाते दिख-मिल ही जाता है। लोग खाना खाते, घूमने जाते, मातम में जाते, बीवी से झगड़ते, बॉस को गरियाते, उठते-बैठते, सोते-जागते बस रील बना रहे हैं। न बनाएं तो न दिमाग को सुकून मिलता न दिल को करार आता है।घटनाएं-दुर्घटनाएं घट रही हैं। डॉक्टर्स भी मोबाइल के अधिक इस्तेमाल पर चेता रहे हैं। परिवार सिकुड़ रहे हैं। रिश्तेदारियां व्हाट्सएप तक सिमट कर रह गई हैं। मगर हमने ठान ली है कि रील और मोबाइल का साथ न छोड़ेंगे। चाहे जो हो जाए।रील रोजगार दे रही है। रील बनाने के लिए न पढ़ाई की जरूरत न किताब की। स्कूल व ट्यूशन का खर्चा भी नहीं। हाथ में मोबाइल हो। रील बनाने के लटके-झटके आते हों। वायरल करने का हुनर पास हो। बस और क्या चाहिए। घर बैठे ही वारे-नियारे।
पहले किसी को रील बनाते देखता तो प्रायः टोक दिया करता कि नाहक समय क्यों जाया कर रहे हो। मोबाइल छोड़ किताबें पढ़ो। ज्ञान हासिल करो। खाली वक्त में अपनों से बातें करो। मेरा इतना कहना लोगों को नागवार गुजरता। तुरंत ही मुझे पिछड़ी सोच का घोषित कर दिया जाता। बुरा तो हालांकि लगता मगर सह जाता। खुद को समझा लेता कि लोग अब बदल गए हैं। करेंगे वे वही जो वे चाहते हैं। इसीलिए अब अगर किसी को रील बनाते या दिनभर मोबाइल में झुके देखता तो उन्हें और मोटिवेट करता हूं कि वे बेहतर कर रहे हैं। करते रहें। भविष्य यही है। रील ही रोजगार है।
बीवी भी रील बनाती है। फेसबुक-इंस्टाग्राम पर डालती है। मुझे दिखाती है। मेरी दाद भी चाहती है। उसके व्हाट्सएप ग्रुप पर दिनभर यही चलता रहता है। आपको ताज्जुब (नहीं) होगा, हमारे घर में खाना सिर्फ रील बनाने के लिए बनता है। बर्तन रील बनाने के लिए मांजे जाते हैं। कपड़े रील बनाने के लिए धुलते हैं। इधर-उधर घूमने भी हम सिर्फ रील बनाने के लिए ही जाते हैं। रील बनाते-बनाते कब सुबह, कब शाम, कब रात हो जाती है, यकीन कीजिए, पता ही नहीं चलता।
मामला चूंकि घर का है। साथ रहना भी है। खुद की इज्जत बचाए रखनी भी है। इसीलिए बीवी का रील-अत्याचार चुपचाप सहन करता रहता हूं। डिजिटल होने की कुछ कीमत हमें चुकानी ही होगी।
रील का कीड़ा अर्थी तक पहुंच गया है। उस रोज देखा कि एक बंदा अर्थी को कंधे पर रख रील बनाते हुए जा रहा था। मरने वाले की आत्मा निश्चित ही तृप्त हुई होगी! मोक्ष मिला होगा उसे! कभी सोचा न था कि दुनिया इतनी डिजिटल हो जाएगी!
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